दोस्तों, हर साल केंद्र और राज्य सरकार अपने-अपने बजट में लाखों करोड़ों रुपए अलग-अलग योजनाओं के लिए घोषणाएं करती हैं। इन योजनाओं को पढ़कर ऐसा लगता है कि आने वाले कुछ ही सालों में देश से बेरोजगारी गरीबी और असमानता पूरी तरह से खत्म हो जाएगी। लेकिन जब इन योजनाओं को जमीन पर लागू किया जाता है तो इनका असर कुछ खास नजर नहीं आता। सवाल यही है कि पैसा योजना और नीयत होने के बावजूद सरकारी योजनाएं आम आदमी तक पहुंचते-पहुंचते क्यों दम तोड़ देती हैं?
भारत दुनिया के उन देशों में गिना जाता है जो सबसे बेहतरीन पॉलिसी बनाते हैं, लेकिन इंप्लीमेंटेशन यानी जमीनी हकीकत में अक्सर फेल हो जाते हैं। दिल्ली या राजधानी में तो यह योजनाएं क्रांतिकारी लगती हैं, लेकिन गांव के आखिरी घर तक पहुंचते-पहुंचते इतनी कमजोर पड़ जाती हैं कि उसका मूल उद्देश्य ही खत्म हो जाता है। इसे ही हम आम भाषा में इंप्लीमेंटेशन गैप कहते हैं। जो आज के समय में भारत की सबसे बड़ी कमजोरी बना हुआ है।
सरकारी योजनाओं के फेल होने की वजह क्या है?
सरकारी योजनाओं के फेल होने की कोई एक वजह नहीं है। इसके कई कारण हैं। जिनमें ब्यूरोक्रेट, लापरवाही, डिजिटल डिवाइस की कमी, लोगों में जागरूकता की कमी और भ्रष्टाचार जैसे अनेक मुद्दे शामिल हैं। चलिए इनके बारे में एक-एक करके विस्तार से जानते हैं..
ब्यूरोक्रेसी और ऑफिस राज
सरकारी योजनाओं की सबसे बड़ी समस्या है, उनका जटिल सिस्टम। किसी भी योजना में आवेदन करने के लिए इतने फॉर्म, दस्तावेज और इतने लेवल पर अप्रूवल की जरूरत पड़ती है कि जरूरतमंद व्यक्ति प्रोसेस सुनकर ही हाथ खड़े कर देता है और योजना के लिए आवेदन ही नहीं करता।
इसके बावजूद अगर कोई व्यक्ति पूरा प्रोसेस फॉलो करके आवेदन भी करता है तो ऑफिस राज की चपेट में आ जाता है। दफ्तर में बैठे सरकारी अधिकारी गरीब व्यक्ति की मदद करने के बजाय उससे पैसा (रिश्वत) ऐंठने का काम करते हैं। इससे परेशान होकर व्यक्ति या तो हालातों के आगे जूझकर मोटी रकम अधिकारियों को दे देता है या योजना को भूल जाता है।
डिजिटल डिवाइस और जागरूकता की कमी
आज के समय में हर सरकारी गैर सरकारी योजना डिजिटल हो चुकी है। ऑनलाइन आवेदन, पोर्टल, ओटीपी, मोबाइल नंबर लिंक यह सब शहरों में तो आसानी से हो जाता है। लेकिन ग्रामीण लोगों के लिए आज भी यह एक बहुत बड़ा पहाड़ है। रिमोट एरिया में इंटरनेट की कमी और डिजिटल साक्षरता की कमी एक बड़ी चुनौती है। कई लोगों को तो यह भी पता नहीं है कि वे किसी योजना के योग्य भी हैं। उन्हें योजना की भनक तक नहीं लगती। जिसका फायदा बीच के लोग उठाते हैं। अगर लोगों को जागरूक किया जाए तो शायद थोड़ा सुधार होने की गुंजाइश है।
टॉप डाउन अप्रोच vs जमीनी हकीकत
भारत एक ऐसा देश है जहां कुछ किलोमीटर में ही भाषा, धर्म, वातावरण और जलवायु में काफी बड़ा अंतर आ जाता है। ऐसे में दिल्ली के किसी AC रूम में बैठकर कोई व्यक्ति योजना बना रहा है तो उसे जमीनी हकीकत का कुछ भी मालूम नहीं है कि राजस्थान में क्या तापमान है? केरल में क्या जरूरत है? हिमाचल प्रदेश में कैसी व्यवस्था होनी चाहिए?
ऐसा व्यक्ति वन साइज़ फिट ऑल मॉडल जैसी योजना बनाकर आगे भेज देता है। जो जमीनी हकीकत तक आते-आते बिल्कुल ही बेकार हो जाती है। कई बार तो ऐसी योजनाएं भी बना दी जाती हैं जो असल में कोई महत्व ही नहीं रखती।
किसी भी योजना को बनाने से पहले वहां की स्थानीय भूगोल, संस्कृति, सामाजिक ढांचे और पंचायत की जरूरत को अच्छे से समझकर ही योजना का निर्माण करना चाहिए। ताकि असल में समस्या का समाधान निकाल सके।
भ्रष्टाचार पर लीकेज
भारत में सरकारी योजनाओं में भ्रष्टाचार ना हो यह हो ही नहीं सकता… यह भारत की पुरानी और कड़वी सच्चाई है। एक बार देश के पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने भी कहा था कि दिल्ली से निकल ₹1 जमीन तक पहुंचते-पहुंचते केवल 15 पैसे रह जाता है। उनकी यह बात आज भी उतनी ही लागू होती है, जितनी पहले लागू होती थी। हालांकि सरकार ने समय-समय पर इसमें सुधार करने की कोशिश जरूर की है।
सरकार ने डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (डीबीटी) मॉडल पेश किया। जिसमें लाभार्थी को पैसा सीधे उनके बैंक अकाउंट में दिया जाने लगा। लेकिन आज भी भ्रष्टाचार वैसे ही पनप रहा है, जैसे पहले था। फर्क सिर्फ इतना है भ्रष्टाचार करने का तरीका बदल गया है।
BDT आने के बाद लोगों को उतना पैसा तो मिल जाता है जितना योजना में बताया गया था। मगर किन लोगों को मिलता है? इसी में सबसे बड़ा होला हो रहा है। योजना का पैसा उन लोगों के खाते में डाला जा रहा है जो असल में योजना के हकदार ही नहीं थे। इन्होंने सिस्टम में कमी, रिश्वत देकर और अन्य तरीके लगाकर अपने आप को योजना के योग्य बना दिया और गरीब योग्य व्यक्ति हाथ मलते रह गया।
जवाबदेही की कमी
किसी भी योजना के लिए बजट जितना महत्वपूर्ण होता है, उतना ही महत्वपूर्ण यह भी होता है कि योजना का लाभ उन लोगों तक पहुंचाएं जाए जो योग्य है। अक्सर योजनाएं लॉन्च होने के बाद उनका सही से ऑडिट नहीं होता। यह नहीं देखा जाता कि पैसा कहां खर्च हुआ है? किसे फायदा मिला है और किसे नहीं? अधिकारी सिर्फ सरकारी आंकड़ों को देखकर ही यह मान लेते हैं की योजना सफल हुई।
अगर हर एक योजना के लिए अलग से अधिकारी नियुक्त किया जाए जो पूरी योजना की रूपरेखा देखेंगे की योजना कितनी असरदार है? काम कर रही है या नहीं? तो शायद योजनाएं जमीनी हालत को बदल सकती है। पूरा खेल जवाबदेही का है। अगर योजनाओं में किसी तरह का भ्रष्टाचार होता है तो अधिकारियों के खिलाफ सख्त से सख्त कार्रवाई की जाए।
निष्कर्ष और समाधान
सरकारी योजनाएं बार-बार फेल हो रही हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि योजनाएं बेकार है, बल्कि असली कमी सिस्टम में है। सबसे पहले तो योजनाओं को आसान बनाना होगा ताकि आम आदमी भी बिना किसी डर के आसानी से समझ और आवेदन कर सके। डिजिटल सिस्टम के साथ-साथ ऑफलाइन विकल्प भी उपलब्ध कराने होंगे।
स्थानीय सरकारों और पंचायत को ज्यादा से ज्यादा अधिकार और जिम्मेदारी देनी होगी। क्योंकि वही समाज की सबसे ज्यादा और गहरी समझ रखते हैं। जमीनी हकीकत से रूबरू है।
सबसे महत्वपूर्ण बात है, जवाबदेही। योजना के साथ-साथ यह भी तय करना होगा कि अगर योजना का लाभ गरीबों को नहीं मिला तो जिम्मेदार कौन होगा? भ्रष्टाचार करने और दूसरे तरीके से योजना में दखलअंदाजी देने पर सख्त से सख्त कार्रवाई हो। अभी देश के हालत बदल सकेंगे।







