पुराने समय में दिन की शुरुआत चाय और अखबार से होती थी, जहाँ हम तय करते थे कि हमें क्या पढ़ना है। लेकिन आज? आज आंख खुलते ही हाथ सीधे फोन पर जाता है। आपने गौर किया होगा कि अब आपको कुछ खोजने की जरूरत नहीं पड़ती। आपके मोबाइल को पहले से पता होता है कि आपको क्या दिखाना है।
कभी व्हाट्सएप के ज्ञान वाले मैसेज, तो कभी इंस्टाग्राम की वो रील्स जो एक के बाद एक आती जाती हैं और आपका आधा घंटा कब निकल जाता है, पता भी नहीं चलता। ऐसा लगता है जैसे फोन के अंदर कोई बैठा है जो आपको इशारों पर नचा रहा है और आपको फोन छोड़ने ही नहीं देता। असल में, यह कोई जादू नहीं बल्कि एल्गोरिदम का खेल है। चलिए आसान भाषा में समझते हैं कि ये बला आखिर है क्या और ये हमें इतनी अच्छी तरह कैसे पहचानती है।
फोन एल्गोरिदम कैसे काम करता है?

शुरुआत में कोई भी ऐप आपको नहीं जानता। उसके लिए आप बस एक अनजान यूजर होते हैं। लेकिन जैसे-जैसे आप स्क्रीन पर उंगलियां घुमाना शुरू करते हैं, खेल बदलने लगता है। हर लाइक, शेयर और हर वो कमेंट जो आपने किसी गुस्से या खुशी के मूड में किया है, एल्गोरिदम उसे अपने दिमाग में नोट करता जाता है। यह आपकी डिजिटल परछाईं का पीछा करता है।
इसे ऐसे समझिए आपने बस क्यूरियोसिटी में शेयर मार्केट के 10 वीडियो देख लिए। अब अगली बार जब आप ऐप खोलेंगे, तो आपकी पूरी फीड शेयर बाजार के ग्राफ और सलाहों से भरी होगी। अगर आप किसी डरावनी खबर या विवादित पोस्ट पर 10 सेकंड फालतू रुक गए, तो समझ लीजिए कि आपने एल्गोरिदम को दावत दे दी है। अब वो वैसी ही खबरों की झड़ी लगा देगा।
यह सब इतनी खामोशी और तेजी से होता है कि हमें भनक तक नहीं लगती कि हमारी पसंद अब हमारी नहीं रही, बल्कि मशीन द्वारा तय की जा रही है।
यह तो बात थी उन प्लेटफार्म की जहां आप वीडियो देखकर एल्गोरिदम के चंगुल में फंस जाते हैं। मगर व्हाट्सएप का मामला पूरा अलग है। क्योंकि व्हाट्सएप पर आप कोई वीडियो नहीं देखते, बल्कि आपको कोई ऐसा मैसेज मिलता है जो आपको डराता है… अंदर से घबराहट महसूस कराता है और आप उसे अगले वाले को फॉरवर्ड कर देते हैं। बिना उसके पीछे जांच-पड़ताल किए।
ऐसे मैसेज पढ़ कर हमें लगता है हम ही सही हैं, बाकी सब गलत है। या हम उसे ही सच मानते हैं जो हमें मैसेज में दिखाया जाता है। असल में यह हमारी खुद की सोच नहीं थी बल्कि हम एल्गोरिदम के चंगुल में फंस चुके थे। क्योंकि हमारा दिमाग जो कुछ भी पहली बार देखता है, उसे ही सच मान लेता है।
क्या एल्गोरिदम सोच को भी कंट्रोल करता है?
हमें एक गलतफहमी है। हमें लगता है कि इंस्टाग्राम या यूट्यूब हमें गुमराह कर रहे हैं। सच तो यह है कि वे सिर्फ वही दिखा रहे हैं, जो हम देखना चाहते हैं। लेकिन यही चाहत सबसे बड़ा जाल है। महीनों तक एक ही तरह की खबरें और वीडियो देखते-देखते आपकी सोच का दायरा सिमटने लगता है। आपकी प्रतिक्रिया देने का तरीका और बहस करने के तर्क, सब कुछ धीरे-धीरे बदलने लगते हैं।
इसे एक उदाहरण से समझिए। आपने किसी नेता का एक छोटा सा भाषण देखा। कुछ ही दिनों में आपकी फीड वैसी ही क्लिप्स से भर गई। अब आप घंटों सिर्फ उसी एक इंसान को सुन रहे हैं। धीरे-धीरे वह व्यक्ति आपके दिमाग पर हावी होने लगता है। आपको लगने लगता है कि सिर्फ वही सच है और बाकी सब भ्रष्ट। आपको लगता है कि यह आपका अपना फैसला है, आपकी अपनी सोच है। लेकिन हकीकत में? आपका दिमाग ट्रिगर किया गया था… एल्गोरिदम के दम पर।
इसमें एक और गहरा खेल है: अपनी भाषा का जादू। जो प्लेटफॉर्म क्षेत्रीय भाषाओं (Regional Languages) में कंटेंट दिखाते हैं, वे आपके दिल के ज्यादा करीब पहुँच जाते हैं। अपनी भाषा में कही गई बात ज्यादा सच्ची और भरोसेमंद लगती है। यही वजह है कि आज बड़े अखबारों से ज्यादा प्रभाव छोटे वीडियो क्रिएटर्स और लोकल न्यूज़ ऐप्स का है। वे आपकी भाषा बोलते हैं, इसलिए वे आपकी सोच को ज्यादा आसानी से कंट्रोल कर पाते हैं।












